‘कनक भवन’, भगवान राम व उनकी दिव्य संगिनी सीता जी को समर्पित, अयोध्या का सबसे बड़ा, वास्तुकला, सौंदर्य व धार्मिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण मंदिर हैं | यह उत्तर प्रदेश के तीर्थ अयोध्या में स्थित है | यह मंदिर वास्तुकला व डिज़ाइन का अद्वितीय उदाहरण तथा अयोध्या का सबसे सुंदर व आकर्षक मंदिर है | इसकी अद्वितीय सुंदरता केवल वाह्य निर्माण में ही नहीं वरन आंतरिक भी है, गर्भ गृह में स्थापित मूर्तियों का आकर्षण ही ऐसा है कि जो एक बार देख ले वह मंत्रमुग्ध व इसके वर्णन हेतु शब्दहीन हो जाए | इसमें स्थापित मूर्तियों का दिव्य सौन्दर्य श्रद्धालु की आँखों में चुंबकीय आकर्षण भर देता है तथा उसके लिए इनपर से आँखें हटाना दुष्कर कार्य हो जाता है | यह प्रथम दृष्टि में प्रेम होने के सदृश है | आगंतुक स्वयं से यहाँ दोबारा आने हेतु अवश्य प्रण करता है ताकि वह यहाँ के अनुभव, आकर्षण व दिव्यत्त्व को अपनी आँखों मे जितना हो सके क़ैद कर ले |
जब सूर्योदय व सूर्यास्त की किरणें इस भवन पर पड़ती हैं, यह मनमोहक दिखता है व विषेशरूप से मनोरम तथा करामाती प्रतीत होता है | मंदिर का अग्र भाग जो सूर्योन्मुख है, अर्थात मंदिर की वाह्य दीवारें जो पूर्व दिशा की ओर हैं जैसा कि आप मंदिर के परिसर से देख सकते हैं, ऐसा प्रतीत होता है जैसे समस्त विश्व से पहले सूर्य अपनी किरणों से इस भवन को नहला रहा हो | इसी प्रकार की लीला दोपहर के बाद भी मंदिर परिसर से देखी जा सकती हैं जब अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें भवन की पश्चिमी दीवारों को नहला देती हैं |
मंदिर से अधिक यह एक विशाल महल के तौर पर रचा गया है, कनक भवन मंदिर भारत के दूसरे क्षेत्र राजस्थान व बुंदेलखंड के सुंदर प्रासादों से मिलता जुलता है | इसका इतिहास त्रेता युग से माना जाता है जब इसे राम की सौतेली माँ द्वारा उन्हें व उनकी पत्नी सीता को विवाह उपहार के रूप में दिया गया था | समय के साथ यह गिर कर नष्ट हो गया तथा इसका कई बार पुनर्निर्माण व जीर्णोद्वार हुआ | प्रथम पुनर्निर्माण राम के पुत्र कुश द्वारा द्वापर युग के प्रारंभिक काल में किया गया | इसके बाद द्वापर युग के मध्य में राजा ऋषभ देव द्वारा पुनः बनवाया गया तथा भगवान कृष्ण द्वारा भी इस प्राचीन स्थान का भ्रमण कलि युग के पूर्व काल (614 ई॰ पू॰ )किए जाने की मान्यता है |
वर्तमान युग अर्थात कलि युग में इसे सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा युधिष्ठिर काल 2431 में बनवाया गया, इसकी मरम्मत व जीर्णोद्वार समुद्रगुप्त द्वारा 387 ई॰ में किया गया (वि॰स॰ 444), इस मंदिर को नवाब सालारजंग-II गाज़ी द्वारा 1027 ई॰ (वि॰ स॰ 1084) में नष्ट किया गया तथा अंत में ओरछा व टीकमगढ़ (बुंदेलखंड) के महाराजा महाराजा श्री प्रताप सिंह जू देव, जी सी एस आई, जी सी आई ई, तथा उनकी पत्नी महारानी वृषभान कुंवरि ने इसका निर्माण 1891 में (वि॰ स॰ 1948) में करवाया | यह निर्माण गुरु पौष की वैशाख शुक्ल की षष्ठी को सम्पन्न हुआ | (सामान्यता ये मई का महीना होता है ) |
यहाँ पवित्र मूर्तियों की तीन जोड़ियाँ हैं तथा तीनों ही भगवान राम और सीता ही हैं | सबसे बड़ी मूर्ति महारानी वृषभान कुंवरि द्वारा स्थापित की गई थी जो इस मंदिर के निर्माण व स्थापना के पीछे मुख्य शक्ति थीं | इस मूर्ति जोड़ी के दाहिनी ओर अपेक्षाकृत कुछ कम ऊंचाई की मूर्ति स्थापित है जिसके बारे में कहा जाता है कि उसे राजा विक्रमादित्य ने स्थापित किया था, ये मूर्ति उन्होंने इस प्राचीन मंदिर से बचा ली थी जब आक्रमणकारियों ने उसे नष्ट किया था | तीसरी सबसे छोटी जोड़ी के बारे में परंपरागत रूप से कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने उस महिला सन्यासिनी को भेंट की थी जो इस स्थान पर भगवान राम की आराधना कर रही थी | कृष्ण ने उस महिला के शरीर त्याग पर उसे निर्देश दिया कि वह इन मूर्तियों को भी अपने साथ समाधिस्थ कर ले क्योंकि ये बाद में पवित्र स्थान के रूप में चिन्हित किया जाएगा जब एक राजा कलि-युग में इस स्थान पर एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाएगा | यही राजा बाद में विक्रमादित्य हुआ | जब विक्रमादित्य इस मंदिर के निर्माण के लिए नींव की खुदाई करवा रहा था तो उसे ये प्राचीन मूर्तियाँ मिलीं | इन मूर्तियों ने उस महान राजा को अपने द्वारा निर्मित इस विशाल मंदिर में स्थापित किए जाने हेतु गर्भ गृह के उचित स्थान के चयन में सहायता की |
जब वर्तमान मंदिर बना, सभी तीनों जोड़ियाँ गर्भ गृह में प्रतिष्ठित की गईं | अभी इन तीनों ही जोड़ियों को देखा जा सकता है | मंदिर में इन मूर्तियों को प्रतिदिन श्रद्धा व पूजा का अर्पण किया जाता है |
यद्यपि हिन्दू पंचांग के अनुसार विभिन्न शुभ अवसरों पर यहाँ विविध समारोह व उत्सव होते रहते हैं परंतु उनमें से कुछ अति विशिष्ट हैं | ये सभी अवसर उत्सव अथवा समारोह के साथ साथ ही वैभव व जुलूस के रूप में मनाए जाते हैं | संगीत व भक्ति गीत इस मंदिर में सदा गूँजते रहते हैं | ये विशेष अवसर निम्नलिखित हैं :-
(1) फूल बंगला
यह वह समय है जब आराध्य व मंदिर को फूलों से सजाया जाता है | यह एक मनोहारी दृश्य होता है |
(2) झूला महोत्सव
यह वर्षा ऋतु के प्रारम्भ होने के अवसर पर आयोजित किया जाता है, सामान्य तौर पर अगस्त के महीने में मंदिर के मुख्य कक्ष में एक चांदी का झूला स्थापित किया जाता है तथा आराध्य को गर्भ गृह से निकाल कर झूले पर रखा आता है ताकि वह झूले का आनंद ले सकें | यह उत्सव लगभग 15 दिनों तक निरंतर चलता है | उत्सव के पहले दिन,मूर्तियों की तीसरी जोड़ी को एक जुलूस की शक्ल में मदिर कक्ष से बाहर निकाला जाता है, तथा इसे अयोध्या की गलियों से घुमाते हुए मणि पर्वत पर ले जाया जाता है | इस स्थान पर अन्य मंदिरों से लाये गए आराध्य भी एकत्रित होते हैं | वापसी के समय आराध्य के दर्शन मंदिर के मुख्य कक्ष में पहले से ही स्थापित चांदी के झूले में सुलभ होते हैं |
(3) शरद पूर्णिमा
यह शीत ऋतु की पूर्ण चंद्र की रात्रि है , ऐसी मान्यता है कि इस दिन देवता स्वर्ग से धरती पर अमृत की वर्षा करते हैं | इस अवसर पर मंदिर के भीतरी अहाते में खुले आकाश के नीचे पूर्ण चंद्रमा के सुंदर प्रकाश में विशेष दर्शन (आराध्य का) का आयोजन किया जाता है |
(4) होली
भारत का यह रंगों का पर्व पौराणिक कथाओं में वर्णित है | इस अवसर पर मंदिर के मुख्य कक्ष में दर्शन कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है जहां श्रद्धालु भगवान पर सूखे रंग अर्पित करते हैं |
स्थान
यह मंदिर उत्तर प्रदेश के अयोध्या नगर के मध्यभाग में स्थित है | यह नगर सड़क व रेल मार्ग द्वारा प्रमुख नगरों से भली प्रकार जुड़ा है, यथा लखनऊ (135 किमी), गोरखपुर (145 किमी), वाराणसी 210 किमी), जो स्वयं एक मुख्य रेल, सड़क एवं अंतर्राष्ट्रीय वायु मार्ग की सुविधा प्रदान करता है |
समय
वर्ष के सभी दिन खुलता है |
ग्रीष्म काल – 8 बजे पूर्वाह्न से लेकर 11.30 बजे पूर्वाह्न तक, 4:30- अपराहन से लेकर 9:30 बजे अपराहन तक
शीत काल में - 9 बजे पूर्वाह्न से लेकर 12:00 बजे मध्याह्न तक , 4:00 बजे अपराहन से लेकर 9:00 बजे अपराहन तक